"परंपरागत मूल्यों और अन्वेषण के बीच आर्यभट्ट :एक अन्वेषक " Hindi Natak Review
हम जिस समाज में रहते हैं ,उसमें मूल्यों का बहुत महत्व है। क्योंकि मूल्यहीन समाज पशुओं के झुंड की ओर संकेत करता है। विश्व भर में मानव जिस समूह और समुदाय में रहता है ,वहां वह मूल्यों के डोर में बंध कर उचित- अनुचित का व्यवहार अपने विवेक से करता है। 'मूल्य शब्द से तात्पर्य किसी भौतिक वस्तु अथवा मानसिक अवस्था के उस गुण से है ,जिसके द्वारा मनुष्य के किसी उद्देश्य अथवा लक्ष्य की पूर्ति होती है। मूल्यों का व्यक्ति के आचरण, व्यक्तित्व तथा कार्यों पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है'1और यह प्रभाव ही समाज में एक व्यक्ति को व्यक्ति से भिन्न बनाता है। हमारे व्यक्तिगत, नैतिक गुणों की पहचान भी इसी से होती है। किसी भी मानव समाज में उसका परिवार ही एक ऐसी छोटी इकाई के रूप में जाना जाता है, जहां माता के गर्भ से ही सामाजिक गुणों ,मानव मूल्यों और व्यक्तित्व का विकास होने लगता है। व्यक्तित्व से जुड़ा प्रत्येक पक्ष इस समाज को एक नई दिशा की ओर ले जाता है ।धीरे- धीरे हमारे आचरण और व्यवहार एक परंपरा का निर्माण करने लगते हैं।मानव जिन पुरातन मूल्यों को परंपरा के आधार पर हस्तांतरित करता रहता है ,और उसी के अनुरूप आचरण और व्यवहार करने लगता है, उसे हम परंपरागत मूल्यों के रूप में देख सकते हैं।
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परंपरागत मूल्यों का चयन हम स्वविवेक से कर सकते हैं डॉक्टर आलोक टंडन (रिसर्च फेलो इंडियन काउंसिल आफ फिलोसॉफिकल रिसर्च प्रोजेक्ट) परंपराओं के विषय में स्पष्ट करते हैं ,"परंपरा को परिवर्तनशील मानना सबसे बड़ी भ्रांति है। इसमें आंतरिक गतिशीलता होती है, नए संदर्भ उसे नए अर्थ देते हैं ।यह स्वनिर्मित नहीं होती उनका सचेत रूप से चुनाव किया जाता है। यह विवेक और सच्ची इतिहास दृष्टि द्वारा ही संभव है ।"2 जिस इतिहास, विवेक, परंपरागत मूल्यों की बात यहां स्पष्ट हो रही है, वह एक अन्वेषक के लिए किस प्रकार की स्थितियों का निर्माण करते हैं ,उसे नाटक "अन्वेषक" में आर्यभट्ट के जीवन में दिखाया गया है।( नाटककार डॉ प्रताप सहगल) यह नाटक पांचवी शताब्दी में कुसुमपुर पाटलिपुत्र में जन्मे प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद और गणितज्ञ पर आधारित है। जिन्होंने अपने अन्वेषणों से पूरे विश्व को चमत्कृत किया। खगोल विज्ञान के महान ज्ञाता आर्यभट्ट के जीवन की समग्रता को बड़ी सूक्ष्मता से देखते हुए नाटककार ने उनके अनवरत संघर्षों को भी प्रस्तुत किया है ।एक अन्वेषक अपने जीवन में स्वयं के द्वारा किए गए अन्वेषणों की कल्याणकारी भावना को सर्वोपरि रखते हुए जितनी प्रसन्नता का अनुभव करता है, उतने ही विरोधों की झंझावातों को भी सहता है ।नाटक के माध्यम से नाटककार ने विदेशी बर्बर जातियों द्वारा आर्यावर्त पर किए गए आक्रमणों की ओर भी ध्यान आकृष्ट कराना चाहा है ।क्योंकि इस प्रकार के आक्रमणों से देश की प्रजा के बीच होने वाला असंतोष और असंतुलन देश में अराजकता की स्थिति भी उत्पन्न कर देता है ।हूणों के आक्रमण के समय से गुप्त साम्राज्य में शिक्षा और समाज के बीच एक खाई निर्मित होने लगी थी ।राजकोष में संपत्ति (कोष) का अभाव न था ।किंतु, राजकोषीय संपन्नता हर एक समस्या का हल नहीं हो सकता। इन्हीं सामाजिक ,राजनीतिक गतिविधियों के बीच आर्यभट्ट का "आर्यभटीय" ग्रंथ आलोक में आता है ।जिसमें ज्योतिष शास्त्र के खगोल और ग्रह नक्षत्रों की चाल से संबंधित सिद्धांतों का प्रतिपादन है। यह ग्रंथ परंपरागत मूल्यों में नूतनता के विकास की कड़ी स्वरूप है। जिससे समाज अपने रूढ़िवादी विचारधाराओं को त्याग कर कल्याणकारी भावनाओं को आत्मसात कर सके।सम्राट बुध गुप्त की इच्छा है कि आर्यभट्ट कुसुमपुर की वेधशाला से बाहर नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति का कार्यभार संभालें। किंतु ,आर्यभट्ट कुलपति का भार न संभाल कर अपनी वेधशाला में ही शोध कार्य पूर्ण करना चाहते हैं।संसार में किसी भी अन्वेषक की राह पुष्पभरी नहीं हो सकती ।विरोध का स्वर विभेद की स्थिति को उत्पन्न कर देता है ।राज दरबार में चिंतामणि और चूड़ामणि विशेष रुप से आर्यभटीय के लोकार्पण का विरोध करते हैं ।चिंतामणि को विशेष आपत्ति आर्यभट्ट को नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए जाने का समाचार व्यथित करता है ।कहीं ना कहीं वह स्वयं को इस योग्य समझता है। क्योंकि, मानव स्वभाव के अनुसार यह स्वाभाविक है कि ,जब कोई व्यक्ति यह कहे कि 'दूसरा योग्य व्यक्ति नहीं मिला था' तब, वह यह भी स्पष्ट कर रहा होता है कि, उस पद के लिए वह स्वयं को ही योग्य समझता है ।या किसी प्रिय को उसके योग्य समझता है ।
चिंतामणि यह नहीं चाहता कि आर्यभट्ट एक ब्राह्मण होकर ब्राह्मण के विरुद्ध हो जाए ।उसे भय है कि ,आर्यभटीय के प्रकाशित और प्रचारित होने से जनमानस में जागरूकता फैल जाएगी। जिससे ब्राह्मणों की जजमानी पर भी प्रभाव पड़ेगा ।ब्राह्मण वर्ग के प्रति लोगों के सोच में भी परिवर्तन होगा ।आर्यभट्ट और आर्यभटीय के प्रति लोगों में अविश्वास और आक्रोश बढ़े इसके लिए चिंतामणि और चूड़ामणि आर्यभट्ट और केतकी के प्रेम संबंध को लोकापवाद का विषय बनाते हैं। यह लोकापवाद उस हवा की तरह फैलती है ,जिस में दुर्गंध का वास होता है। सम्राट बुध गुप्त का यह कहना इस बात का प्रमाण है कि,' लोक अपवाद राजमहल की सीमा को भी स्वीकार नहीं करती।'3 केतकी और आर्यभट्ट एक दूसरे से प्रभावित हैं ।केतकी के लिए आर्यभट्ट गंतव्य है ।किंतु आर्यभट्ट के लिए गंतव्य ग्रह -नक्षत्रों से भरा अनंत आकाश है ,खगोल है, उसे बहुत दूर जाना है। किंतु केतकी के प्रति अनुराग को भी वह नकार नहीं सकता। वह चाहता है कि केतकी उसकी प्रतीक्षा करें किंतु, केतकी जानती है कि 'एक सीमा के बाद प्रतीक्षा निरर्थक हो जाती है।वह चाहती है कि उसकी प्रसन्नता के लिए आर्यभट्ट 'संबंधों के सौरजगत में उतरे'4 पर आर्यभट्ट कहता है ,'तुम काव्य की भाषा बोलती हो और मैं अंको की भाषा समझता हूं।'5 वह जानता है कि ,'भाव मन का गुण है और वह बुद्धि का अनुचर बना हुआ है।'6जिस सत्य की ओर वह बढ़ रहा है ,उस मार्ग में उसे लोक अपवाद के स्वर नहीं रोक सकते। जो लोकापवाद लोक के नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन नियमों के कारण आर्यभट्ट खगोलीय नियमों की अवहेलना नहीं कर सकते।
लोकापवादों का अस्त्र कितना कारगर होगा इसकी चिंता किए बिना आर्यभट्ट अपने सिद्धांतों को एकसूत्रता में पिरोना जगत के लिए हितकारी समझते हैं ।चिंतामणि और चूड़ामणि जैसे तत्व कभी नहीं चाहते कि समाज शिक्षित हो ,आडंबर हीन हो क्योंकि,शिक्षित समाज को अंधविश्वासों के अंधकूप में गिराना कठिन होता है। नाटककार ने एक अंधविश्वास की ओर विशेष ध्यान विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट कराया है ,जिस अंधविश्वास को आज भी जहां-तहां देखा जाता है ।जैसे- सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण के समय ब्राह्मण को किया जाने वाला दान-पुण्य, धर्म-अधर्म,गर्भवती महिलाओं के लिए ग्रहण की अवधि में विशेष नियम आदि किए जाते हैं। आर्यभट्ट इस अंधविश्वास को लोगों से दूर करके सत्य से परिचित कराना चाहता है।कि,ग्रहण कोई दैवीय घटना नहीं है। बल्कि, यह सूर्य पृथ्वी और चंद्रमा से संबंधित खगोलीय घटनाएं हैं।ये पृथ्वी और चंद्रमा द्वारा परिक्रमण की स्थितियां हैं ,जो समय- समय पर घटती रहती हैं। जैसे -किसी भी व्यक्ति की ,वस्तु की गोलाकार परिक्रमा कर रहे कुछ व्यक्ति किसी न किसी बिंदु पर एक सीध पर आ जाते हैं ।और, ऐसा उनकी गति के कारण होता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, और पृथ्वी की परिक्रमा चंद्रमा करता है ।इस बात पर लोग विश्वास नहीं करते कि, वह जिस पृथ्वी पर वह रहते हैं ,वह घूमती है ।हम आकाश में हैं ।यदि हम आकाश में हैं तो आकाश को छू क्यों नहीं सकते ।इन सभी अनुभूतियों को समझ पाना सामान्य बुद्धि वाले के लिए संभव नहीं है। चिंतामणि और चूड़ामणि जानते हैं की जनता यदि जागरूक हो गई तो उनके धंधे पर असर होगा ,उनकी विशिष्टता पर संदेह होगा इसलिए वह चाहते हैं कि विद्वत परिषद इस सिद्धांत को आर्यभटीय ग्रंथ को पारित करें। उन्हें पूरा विश्वास है कि वह विद्वत परिषद से इस ग्रंथ को पारित होने से रोक लेंगे ।
कुसुमपुर की वेधशाला में ग्रह नक्षत्रों का समीकरण बिठाते आर्यभट्ट कहते हैं कि,'मेरे शोध कोई भुरभुरी दीवार नहीं जो किसी भी झंझावातों से गिर जाएंगे।'7आर्यभट्ट विरोधों के घोर कंपन में भी स्वयं को विचलित होने नहीं देते। आर्यभट्ट के शब्दों में हम उस स्थिति को समझ सकते हैं कि, आर्यभट्ट क्या अनुभव करते हैं। उनका कहना है कि ,'मेरे सामने केवल मेरा गंतव्य है। जिसके जितना निकट में पहुंचता हूं उतना ही वह मुझसे दूर होता जाता है ।मुझे तो चलना है, निरंतर चलना है, और मेरी इस यात्रा में तुम हो ना मेरे साथ ..'8आर्यभट्ट को यह भली-भांति ज्ञात है कि वह जिस विकास की बात कर रहा है ,वह मात्र परंपराओं पर प्रश्नचिन्ह ही नहीं वरन का नवीन विकास भी है ।आर्यभट्ट का मानना है कि,' परंपरा निषेध नहीं उसका विकास है ,और कोई भी अन्वेषक कोई सही अन्वेषण कर ही नहीं सकता जब तक कि वह परंपरागत मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह न लगाएं '9आर्यभट्ट से पूर्व तथा पर यह स्थितियां किसी भी अन्वेषक के लिए सामान्य नहीं बनी कि, लोग बिना विरोध के किसी नए अन्वेषण को सहर्ष स्वीकार करें ।यह बात आर्यभट्ट को भी अच्छी प्रकार पता है कि परंपराओं का सर्वथा त्याग नहीं किया जा सकता। सभी परंपराएं आवश्यक नहीं कि परिवर्तित ही की जाएं या अस्वीकार कर दी जाएं ।'कालिदास ने भी कहां है ,कि सभी नया स्वीकार्य नहीं होता और सभी पुराना त्याज्य नहीं होता'10 यह समझना किसी सामान्य व्यक्ति के लिए सरल नहीं है ।
आर्यभट्ट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धांत पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। इन्होंने 120 आर्या छंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्र रूप में अपने 'आर्यभटीय' ग्रंथ में लिखा है।'11आर्यभट्ट के योगदान को विश्व कभी नकार नहीं सकता। आजकल के उन्नत साधनों के अभाव में भी खगोल के रहस्यों को सुलझाना वास्तव में ,आर्यभट्ट को अन्य अन्वेषकों की भीड़ से इतर करता है। उनके किए गए अन्वेषणों और सिद्धांतों को हम इस प्रकार देख सकते हैं-' खगोल विज्ञान में पहली बार सोदाहरण का घोषित किया गया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। आर्यभट्ट ने सतयुग ,त्रेता, द्वापर और कलयुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग(चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग ,द्वापर ,त्रेता और कलयुग को समान माना गया है।'12 इनके अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है। जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।'13इन्होंने बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने की वैज्ञानिक विधि का भी प्रयोग किया है ।...गणित में स्थानीय मान और शून्य, अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में 'π'(पाई )अपने कार्यों में द्विज्या(साइन) के विषय में चर्चा की है।'14 आर्यभट्ट ने बीजगणित के क्षेत्र में वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम प्रदान किए हैं।'15 खगोल विज्ञान के क्षेत्र में सौर प्रणाली की गतियों में आर्यभट्ट ने सौरमंडल में एक भूकेन्द्रीय मॉडल का वर्णन किया है,जिसमें सूर्य और चंद्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं।'16आर्यभट्ट ने चंद्र ग्रहण,पृथ्वी से ग्रहों की दूरी,दशमलव ,पृथ्वी के वर्ष की अवधि तथा आर्यभट्ट की संगणनाएँ अंतर्निहित सूर्य केंद्रित मॉडल पर आधारित थी, जिसमें ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं ।'17इस प्रकार के बहुत से सिद्धांतों का प्रतिपादन आर्यभट्ट द्वारा किया गया।
इन सिद्धांतों पर आधारित आर्यभट्ट के ग्रंथ को विद्वत परिषद द्वारा पारित कर दिया गया। जिसका पुरजोर विरोध चूड़ामणि और चिंतामणि द्वारा किया गया ।क्योंकि, आर्यभट्ट इतनी कम आयु में उन योग्यताओं से परिपूर्ण था ,जिसके लिए एक सामान्य व्यक्ति के न जाने कितने जीवन लग जाए ।यह बात वरिष्ठ ब्राह्मण समुदाय के लिए असहनीय थी।जिसका निरंतर विरोध किया गया, प्रजा को आक्रोशित किया गया, परंपराओं में परिवर्तन का दोषारोपण आर्यभट्ट पर किया गया, केतकी और आर्यभट्ट के पुनीत प्रेम संबंध को कलंकित करने का प्रयास किया गया ।इन्हीं हलचलों के मध्य हूणों के आक्रमण में सम्राट बुधगुप्त की ओर से आर्यभट्ट, चिंतामणि और चूड़ामणि देश की रक्षा हेतु साथ साथ युद्ध रत भी रहे ।युद्धोपरांत सम्राट द्वारा 'आर्यभटीय' प्रकाशित और प्रचारित कराने का आदेश दिया जाता है।जिसका पुनः विरोध चिंतामणि और चूड़ामणि द्वारा किया जाता है ।वह चाहते हैं कि आर्यभट्ट को राज्य से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए ।कुछ लोग इसके पक्ष में कुछ भी पक्ष में खड़े हो जाते हैं ।सम्राट द्वारा 'आर्यभटीय' और 'आर्यभट्ट' को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। आर्यभट्ट अपने सम्राट और जनता के साथ-साथ अपने विरोधियों की मनःस्थिति से परिचित है उन्हें पता है कि यह समाज नवीनता को सहज स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि समय और समाज कोई भी हो धर्म और बाह्य आडंबर जब किसी अन्वेषण के मार्ग में आते हैं तब अन्वेषक का समाज से उचित दूरी बनाकर ही अपने मंतव्य और गंतव्य तक पहुंचना जरूरी हो जाता है ।यह समाज सत्य को स्वीकार कर पाने में सदा से असमर्थ रहा है ,और जो सत्य, धर्म, आस्था ,अंधविश्वास से जुड़ा हो वहाँ स्थितियां और भी दुखद हो जाती हैं।सुकरात जैसे महान दार्शनिक ने अपने समय मे यूं ही नहीं जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया होगा।18 आर्यभट्ट स्वयं ही कुसुमपुर छोड़कर अन्यत्र चले गए।
नाटककार ने यहां इस नाटक में एक अन्वेषक के जीवन की विसंगतियों,उनके हृदय और बुद्धि के परस्पर द्वंद्व, अद्भुत ,विलक्षण व्यक्तित्व की पराकाष्ठा, लोकमंगल कारिणी भावनाओं का प्रकटीकरण, जीवन और जगत के अनसुलझे रहस्यों के प्रति उत्सुकता इत्यादि को प्रस्तुत किया है।जिससे कि एक सामान्य श्रोता- पाठक -दर्शक भी एक अन्वेषक के जीवन संघर्षों से परिचित हो सके और उनके योगदान को समझ सके। अन्वेषक नाटक जब प्रकाश में आया तो बहुत से लोगों ने नाटक और नाटककार को सराहा बहुत से लोगों को स्वयं में आर्यभट्ट के जीवन की विसंगतियों का अनुभव किया।अन्वेषक नाटक में यह संदेश दिया गया है कि ,'कोई भी अन्वेषक तब तक अन्वेषण कर ही नहीं सकता जब तक उसे परंपरागत रूप से चले आ रहे मूल्यों और निष्कर्षों का पूर्ण ज्ञान ना हो।'19 आर्यभट्ट के विषय में ,उनकी मानसिक यातना के विषय में, एक अन्वेषक के भीतर -बाहर चलने वाले संघर्षों के विषय में, कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं ,'इतिहास नाटक की पृष्ठभूमि है इसलिए यह ऐतिहासिक नाटक नहीं है ।इसका मकसद जानकारी देना भी नहीं बल्कि इतिहास के एक कालखंड ,कालखंड में जन्मे आर्यभट्ट के अन्वेषण के बहाने परिवर्तन ,शक्तियों के संघर्ष को रेखांकित करना है। इसी के साथ जुड़ते हैं प्रेम, ईर्ष्या,स्पृहा, देश- प्रेम और वैज्ञानिक टैम्पर से जुड़े तमाम सवाल ।इन अर्थों में अन्वेषक हिंदी नाटकों की उस परंपरा को आगे बढ़ाता है जो प्रसाद से शुरू होकर मोहन राकेश में बदल जाती है।'20 यह बदलाव ही है जो इस नाटकीय लोक में अन्वेषक को विशेष स्थान दिलाता है।
यहाँ नाटक में एक अन्वेषक को निरंतर चलायमान अर्थात 'चरैवेति चरैवेति 'को रेखांकित किया गया है। साथ ही परंपरा ,नैतिक मूल्य, सत्यम शिवम सुंदरम की भी बात को संकेतिक किया गया है।यहां डॉक्टर आलोक टंडन जी की पंक्तियों को स्थान देना आवश्यक जान पड़ता है ,'भारतीय आधुनिकता की गढ़न में परंपरा और आधुनिकता के लिए कितना -कितना स्थान सुरक्षित किया जाए यही सबसे बड़ी चुनौती है। इसका सामना हम इस विवेक मंत्र से कर सकते हैं कि ,आने वाली हर हवा का परीक्षण सत्य और नैतिकता के आधार पर करें ,भले ही वह भारत के सुदूर अतीत का प्रतिनिधित्व करती हो या सात समुंदर पार के सपनीले आधुनिक पश्चिम का ,साहस के साथ उसे ही अपनाएँ जो कल्याणकारी हो।'21 निश्चय ही डॉक्टर आलोक टंडन जी की बातें अनुकरणीय है ।क्योंकि हम जिस भी वातावरण में रहते हैं, हमें सुगंध और दुर्गंध की परख जितनी सरलता से हो जाती है वहीं सत्य और असत्य में से सत्य की परख हमें अपने विवेक के आधार पर करना कठिन होता है। हमारी परंपराएं भले ही परिवर्तित न हो किंतु, उसमें संशोधन का विकल्प हमें ढूंढते रहना चाहिए। जिससे संशोधन समाज की हित कारक सिद्ध हो सके।
डॉ○ संगीता
लखनऊ
संदर्भ सूची-
1.http://www.drishtiias.com( इंटरनेट से साभार)
2.bhaskar.com( दैनिक भास्कर )इंटरनेट से साभार।
3.'अन्वेषक' नाटक साहित्य कला परिषद दिल्ली की ओर से 'युवा नाट्य समारोह ' 2016 में निर्देशक अतुल जस्सी द्वारा निर्देशित किया गया श्री राम सेंटर प्रेक्षागृह मंडी हाउस नई दिल्ली ,आलेख -dr.प्रताप सहगल,
(मंचित नाटक से साभार)
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11.hi.m.wikipedia.org(आर्यभट्ट) इंटरनेट से साभार।
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18.hi.m.wikipedia.org( सुकरात) इंटरनेट से साभार।
19.bhaskar.com( दैनिक भास्कर) इंटरनेट से साभार ।
20.amazon.in(विवरण )इंटरनेट से साभार (प्रताप सहगल का नाटक अन्वेषक)
21.bhaskar.com, दैनिक भास्कर (डॉक्टर आलोक टंडन रिसर्च फेलो इंडियन काउंसिल ऑफ क्लासिकल रिसर्च प्रोजेक्ट का लेख) इंटरनेट से साभार।
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