इश्क की राह का राही 'बुल्ले शाह'
लिखित नाटक जब मंच पर पहुंचता है तब उसका रूप कुछ -कुछ बदल चुका होता है ,और नाटक की हर एक प्रस्तुति अपनी पिछली प्रस्तुति को मात देने की कोशिश करती है। नाट्यगृह में नाटक के मंचन से पूर्व यदि पूरी सीटें भरी हों और उत्सुक आंखें पर्दे के उठने के इंतजार में टकटकी लगाए बैठी हों तो अनुमान लगाना सरल हो जाता है कि नाटक ने दर्शक को बांधकर बिठा दिया है ।ऐसा ही अनुभव रहा मंचित नाटक 'बुल्लेशाह' को देखकर ।यह संगीत प्रधान नाटक है ।यह नाटक नाटककार प्रताप सहगल की ऐतिहासिक तथ्यों के अथक शोधों का परिणाम है। नाटक की प्रस्तुति बुल्ले शाह के काफ़िये से होती है ,'इश्क चीज है मस्त मस्त…. ' यह इश्क हकीकी ही इश्क मजाजी तक पहुंचती है। इश्क का सफर ही संघर्षमय है।क्योंकि इस इश्क की जात सबसे ऊपर है।जहां धर्म का भेद मिट जाता है।
बुल्ले शाह का जन्म 1680 में हुआ था ।अपने परिवार से विमुख होकर ईश्वर की शरण में पहुंचने का मार्ग तलाशने के लिए संत इनायत शाह के दर पर पहुंचे बुल्ला को गुरु निराश नहीं करते ,किंतु बुल्ले का परिवार जाति से ऊपर की बातों का रहस्य समझ नहीं पाता। धर्म आडम्बरों में जकड़े पिता पुत्र को भी मौलवी बनाना चाहते थे।जैसा कि आम जनमानस में पैतृक व्यवसाय हस्तांतरित करने की परंपरा को इसी प्रकार थोपा जाता रहा है।घर -परिवार ,हर स्थान पर बुल्ले शाह को विरोधियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि यह इश्क की राह ऐसी ही है जो डूबता है वही पार पाता है और खुद को डुबाना आसान नहीं होता यदि तैरना आता हो।तो जात पात से परे रहना ही संतों का गुण है किंतु पैगंबर मोहम्मद का वंशज मानने वाले पिता बुल्ले शाह को आराइन जैसी नीची जाति के शाह इनायत के संपर्क में अपने बेटे को नहीं रखना चाहते थे। बुल्ला को घर- परिवार समाज हर स्थान से बहिष्कृत कर दिया गया। किंतु इन्होंने इश्क की राह नहीं छोड़ी। यह परम ब्रह्म से था तो छूटता भी कैसे ।बुल्ला ने कसूर के समीप ही अपना हुजरा बना दिया और वही सूफियाना, रूहानी काफिया को रचने में खुद को मशरूफ रखा।सैकड़ों सालों बाद भी 'बुल्ला की जाना', 'बंदेया', 'कतिया करूं'आदि रचनाएं उनकी संगीतमय अभिव्यक्तियों के रूप में जाने जाते हैं।बुल्ला ने पाखंड का विरोध किया। मानवता को सर्वोपरि रखा। इश्क को सर्वोपरि रखा। बुल्ला कहता है,' रांझा रांझा करदी नी में आपे रांझा होए,सद्दो नी मेनू धीदो रांझा ,हीर ना आंखों कोई।' बुल्ला का रब का शुक्र मनाना भी स्वाभाविक ही है तभी तो वह कहता है, 'थकता नई पैरान दो नंगे फिर दे सिरते रमण, छावा मेनू दाता सब कुछ दिखता क्यों ना शुकर मनावा।' उन्होंने बहुत ही बहादुरी और सूझबूझ के साथ अपने समय के संभ्रांतों के विरुद्ध, उनकी धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध आवाज उठाई। उनकी रचनाएं हर समय और समाज में समसामयिक हैं क्योंकि उनके सुर और संगीत की अनुगूंज हृदय से हृदय तक जाती है।
इस नाटक में मुख्य पात्र 'बुल्ले शाह ' के किरदार के लिए बड़ी चुनौती देखने को मिली, क्योंकि इस किरदार को संगीत,सुर,लय और ताल का ज्ञान होना आवश्यक था। जिस दायित्व का निर्वहन रंगकर्मी के द्वारा पूर्णतः करने का प्रयास किया गया। नाटक में सभी पात्र अपने -अपने किरदारों में जीवंत प्रस्तुति दे रहे थे।उनके परिधान, रूप, रंग -सजा ,प्रकाश व्यवस्था एक अलौकिक वातावरण की दृष्टि कर रहे थे। नाटक के बीच- बीच में नृत्य और सूफियाना संगीत विलक्षण रूप में ध्वनित हो रहा था। कहीं-कहीं संगीत की तीव्रता गीत व संवाद पर हावी होते से प्रतीत हुए ,किंतु दर्शक दीर्घा का ध्यान आकृष्ट कराती यह प्रस्तुति जिसकी जितनी सराहना की जाए कम प्रतीत होती है। इस नाटक में कोई अंक नहीं है और न ही दृश्यों का विभाजन है। एक दृश्य पलक झपकते ही दूसरे दृश्य में परिवर्तित होता रहता है।
इतिहास में सदा से दोहराया जाता रहा है कि समाज में सत्य, शोध व प्रयोग कभी सहज ही स्वीकार नहीं हुए हैं। जिनमें से धर्म संबंधी सत्य जिसके कारण संसार में सदैव भेदभाव किए जाते रहे हैं।मानवता की राह में सबसे बड़ा अवरोध रहा है ।नाटककार ने संत बुल्ले शाह को इस रूप में प्रस्तुत किया है की उन्हें न तो हिंदू कहा जा सकता है और ना ही मुसलमान क्योंकि उनका मजहब इश्क है।जिसे नाट्यगृह से निकलते दर्शकों की आंखों में क्षण भर के लिए ही सही देखा जा सकता था जिसे नाटक की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है और प्रस्तुति की उपलब्धि के रूप में भी। जिसके लिए नाटककार और निर्देशक अनंत शुभकामनाएं और बधाई के पात्र हैं।
डॉ०संगीता
लखनऊ
19.7.22
Post a Comment