"अपराध बोध (वृद्ध के प्रति) और अकेलेपन में अंतर्मन में संघर्षरत लेखक : पीले स्कूटर वाला आदमी "Hindi Natak Review 




एक लेखक जब कुछ लिखता है, तब वह उसे जीता है। एक साथ भूत ,भविष्य और वर्तमान में  संचरण करते हुए सभी अनछुए पहलुओं को छूना चाहता है। एक लेखक है जो उन प्रश्नों के उत्तर ढूंढ रहा है, जिसे वह बचपन से ढ़ो रहा है।  इंसान वह नहीं होता जो वह दिखता है, वह अक्सर वह होता है जिसे देखा नहीं जा सकता। बस उसके अनुभवों से जुड़ कर समझा जा सकता है। लाल ही है जो खंड खंड जीता है। नाटककार ने एक लेखक के भीतर चलते झंझावातों को बाहर आते दिखाया है। नाटक में लाल ,पीतांबर, बूढ़ा व्यक्ति और नील यह सभी पात्र मुख्य पात्र के उन सभी अनुभवों से जुड़े हुए हैं ,जो उसके जीवन में  अहम हैं। 

नाटक के आरंभ में लाल नामक पात्र कुछ टाइप कर रहा होता है और पीतांबर नील के साथ नाचने का अभिनय करता है। ब्लैक आउट होते ही स्थितियां बदल जाती हैं रोशनी में हम देखते हैं पितांबर के स्थान पर लाल और लाल के स्थान पर पीतांबर नजर आता है।डोरबेल की आवाज के साथ लाल का पिता भीतर आकर लाल के सर पर हाथ फेरते हुए प्यार जताता है। लाल नींद से उठ जाता है। पिता उसकी कुशल पूछता है। यहां से पीले स्कूटर और आदमी के बीच का संबंध सामने आता है लाल ने पिता के लिखे अंतिम खत को खोला नहीं था। पिता यह जानता था कि लाल चिट्ठी खोलेगा  नहीं इसलिए ऊपर ही लिख दिया था कि 7:30 a.m. आ रहा हूं। लाल पिता से बताता है कि वह एक कहानी लिख रहा है पर पिता कहता है, 'जिस कहानी का अंत तुम्हें नहीं पता उसे क्यों लिखना चाहते हो?' लाल का यही कहना है कि वह बहुत सारे सवालों का जवाब चाहता है ।उसका एक सवाल है उसके पिता से "लाल : इंदिरा गांधी की मृत्यु की खबर दादाजी को क्यों नहीं दी गई।" पिता यह कहता है कि जवाब उसे पता है।लाल कहता है ,"मैं इस चील की कहानी लिख रहा हूं ,वो चील .....और एक बूढ़े की कहानी, वह बूढ़ा मेरे घर के सामने सातवीं मंजिल की बालकनी पर दिनभर बैठा रहता है।" पिता की इच्छा है कि लाल पीला स्कूटर जिंदगी भर अपने पास रखें किंतु लाल अपने इस प्रश्न के उत्तर पाने की शर्त रखता है। पिता कहता है " देखो कई चीजें जिंदगी में गणित के सवाल की तरह होती हैं जिन्हें अगर आप को हल करना हो तो आपको 'माना कि' से शुरुआत करनी पड़ती है।" किसी भी सवाल का हल माना कि से शुरू करते हुए हमें मान लेना पड़ता है कि जो सामने है ,सच है।इसे मान लेना ही उचित है। पिता जिस अवसाद के पहाड़ को ढो रहा है वह अतीत का है। जो कभी भी पीछा नहीं छोड़ते। पिता का कहना है कि," कई कहानियां अतीत में बिना अंत लिए होती हैं ।अंत भी उस कहानी के साथ ही घटता है। लेकिन आप ऐन उस वक्त पर वहां मौजूद नहीं होते या आप बहुत छोटे होते हैं। या वह अंत ही कहीं बहुत डरावना ना हो इस शंका में आप उसे जानना ही नहीं चाहते। ऐसी कहानियां बड़ा सा पत्थर बनकर अतीत के पहाड़ पर जम जाती हैं। जिसे आप पूरी जिंदगी ढोते रहते हैं।"अवसाद के यह पहाड़ 1 दिन में बनकर तैयार नहीं होते असंतुष्टि से भरे एक- एक अनुभव उन पहाड़ों पर स्थित एक-एक पत्थर से चिपक कर चट्टानी होते जाते हैं। एक लेखक जो इसी प्रकार का पहाड़ लेकर चलता है। सोता है। खाता है। पीता है, और एक सवाल जो बार बार करता है और बार-बार निरुत्तर रह जाता है।Hindi Natak Review 

                    इस नाटक में एक बाल मन पर पड़ी अमिट छाप को  रेखांकित करते हुए पिता और दादा के आपसी संवेदनाओं को भी उतारा गया है। एक ऐसी संवेदना जो सावित्री के रूप में अदृश्य अवरोध के रूप में उपस्थित रहती है। जो पिता के लिए जरूरत है। क्योंकि वह उसकी अर्धांगिनी है, किंतु ससुर और बालक की आहत होती संवेदना उसकी दृष्टि के मार्ग में कभी आती ही नहीं। बालक युवावस्था की ओर बढ़ता है और युवा पिता प्रौढ़ावस्था की ओर और वृद्ध  अंतिम अवस्था की ओर। उम्र बढ़ती है किंतु ,जो ठहरा रह गया है वह अपराध बोध और ग्लानि। जो रात दर रात अनिद्रा की ओर बढ़ता है।पीतांबर का यह कहना है कि नींद का आना वैसे भी रात के साथ आपके संबंध पर निर्भर करता है।" यह अकेले पीतांबर की बात नहीं है किसी भी वर्ग का व्यक्ति जब कंधों पर अतीत लेकर ढोता रहता है उसका संबंध  नींद के साथ क्षीण होता जाता है। नाटककार की मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि यह स्पष्ट है देख पाती है कि सवालों से घिरा व्यक्ति किसी ऐसे उत्तर की तलाश करने वाला व्यक्ति तब तक संतुष्ट नहीं हो पाता, जब तक उसे संतुष्टि बोधक पूर्णविराम ना मिल जाए ।

                 नाटककार ने पात्रों को एक दूसरे से बदलते समय इस बात का हर स्थान पर ध्यान रखा है कि यह सभी पात्र उस समय की पूरी घटना को अपने शब्दों से जीवंत करते हुए दिखते हैं । जैसे नाटक देखते हुए हम पाते हैं कि पीतांबर जब टाइप करता है तब लाल अपनी उलझनों को सुलझाने की कोशिश करता है और जब लाल टाइप करता है तब पीतांबर भी ऐसा ही करता है। वृद्ध जो कि नाटक में समय- समय पर उपस्थित होता है और आसपास अपनी उपस्थिति से ध्यान आकर्षित कराता है बालकनी से देखना और फिर चले जाना, घंटों खड़े रहना आदि उस बूढ़े की मनोदशा को उद्घाटित करते हैं। लाल और पीतांबर के संवाद जो कि एक पिता और पुत्र का संवाद है।यहां लाल को अपने पिता से समस्या है। क्योंकि वह उसकी मां को छोड़कर चले गए थे ,पीताम्बर के जवाब में भी एक सवाल लाल के लिए छोड़ता है ," पीतांबर : क्योंकि वह मिलने आते थे क्यों ?शायद उनके साथ सोने.... तुम्हें पैसे देकर चॉकलेट लेने भेजते थे।मा उनके लगातार आने के डर से चल बसी। तुमसे मिलने की जिद क्यों करते हैं?... तुमसे क्यों मिलना चाहते हैं?" लेखक पिता की आखिरी खत को खोलने से डरता है उसी खत को जिस पर पिताजी ने लिखा था 7:30 a.m. आ रहा हूं पर वह आते नहीं।उनके आने का ख्याल लेखक को बार- बार होता है बार-बार डोरबेल बस्ती है। बार-बार दरवाजा खुलता है और बार-बार वह आकर कई प्रकार से यह जानने की कोशिश करते हैं कि वह कैसा है, उसने पीला स्कूटर अपने से दूर तो नहीं कर दिया, बार-बार उसे उसके सवालों के जवाब नहीं मिलते। वह सारे जवाब उस आखिरी खत को खोलने से पहले तक के हैं। लेखक जिस बूढ़े व्यक्ति की कहानी लिख रहा है वह बूढ़ा जो उसके सामने बालकनी में नजर आता है । वह बूढ़ा उसके अपने दादाजी के रूप में ही नजर आता है। बूढ़ा आदमी कहता है," आज तो बीत गया, जैसे कैसे बीत ही जाएगा ना। फिर लगने लगता है कि कल एक जादू की पुड़िया में बंद है पुड़िया खुलेगी सूरज उगेगा और सब कुछ वही होगा जो सालों से बालकनी में बैठे-बैठे सोच रहा हूं। पता है आजकल मैं एक बूढी चील को देखता हूं,वो बहुत बूढी हो चुकी है। थकी -सी एक पेड़ के ठूंठ पर बैठी रहती है, बहुत से जवान कौवे उसे चोच मारकर भागते हैं उस चील की एक समस्या है या शायद जवान कौवों का डर पर उसने अब ऊपर आसमान में उड़ना छोड़ दिया है । उसके पर झड़ते हैं। उसके झड़े हुए परो को आजकल इकट्ठा कर रहा हूं।रोज, चलता हूं।पर वह ऊपर उड़ेगी ना। मैं उसे एक बार आसमान में ऐसे गोल-गोल ऊपर उड़ते हुए देखना चाहता हूं।"लेखक की लिखी जा रही इस कहानी में उसके ही माता-पिता हर पात्र में नजर आते हैं जिसे कभी नील, कभी पितांबर, कभी बूढ़ा आदमी हर पात्र मां और पिता को जीवंत करते नजर आते हैं। वृद्धावस्था की उस दयनीय स्थिति का रेखांकन नाटककार ने बखूबी किया है जब इंसान अपने गालों पर अपने शरीर पर झुर्रियों, रूखेपन और उदासीनता को पसरते  देखता है।तब वह जी लेना चाहता है उन सभी पलों को जिसे वह गवां चुका होता है। इस नाटक का पात्र बूढ़ा आदमी पूर्व दीप्त में जाकर अपनी ही कहानी कहता है शुरू से। अपने मन की उधेड़बुन ,रूढ़ियां ,धारणाएं सब कुछ वही है जो पिता करता और कहता है। लाल जिसे सुनता है। पीतांबर दोहराता है और नील के रूप में सावित्रि उपस्थित होती  सी जान पड़ती है। जब वह आते ही कहती है,

" कपड़े उतारूं ?

 लाल : नहीं 

नील : अधिकतर तो तुम कपड़े उतरवाते ही हो इसलिए पूछ लिया ।"

इस नाटक का हर पात्र पूर्वदीप्त में जीता है और उससे बाहर आने पर एक प्रश्न चिह्न लिए खड़ा खड़ा होता है।

                  इस नाटक में प्रमुख रूप से एक अपराध बोध किसी न किसी पात्र के कंधे पर बैठा देखा जा सकता है। लाल बताता है कि बचपन में उसे टीवी देखने का कोई शौक नहीं था। वह तो बस दादाजी को टीवी देखते हुए देखता था वो टीवी ही नहीं देखते उसे जीते थे। उस पर होने वाले हर क्रियाकलापों की संवेदना को अपने भीतर महसूस करते थे। जिसे उनके चेहरे पर भाव स्वरूप देखा जा सकता था। उस वृद्ध को टीवी से दूर कर दिया गया था। एक बालक  नजरे चुराता, कहीं दादा जी टीवी  वाले रूम में ले चलने के लिए ना कह दे तो वह क्या करेगा मा ने मना जो किया था। एक बालमन इस बोझ को  उम्र के साथ-साथ ढोता रहता है।उस अपराध बोध से जूझता रहता है जो उसके दादाजी से जुड़ा हुआ है। एक बूढ़ा व्यक्ति जिसे टीवी देखने न दिया गया तो टीवी की आती हुई आवाज की ओर अपनी पूरी चेतना के साथ टीवी सुनने लगे थे। नाटककार ने उस दृश्य को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है, कि जब बूढा आदमी टीवी की आवाज अपनी अंतिम सांस तक सुनता रहा उसकी आंखें माथे तक चढ़ी रही, टीवी की आवाज की ओर। बूढ़ा आदमी उस दृश्य  पर प्रकाश डालता हुआ कहता है- "इतवार को मुझे अभी भी याद है .....जब मैं उनके कमरे में बल्ब जलाने के लिए गया था, तो देखा उनकी आंखें उनके माथे तक चढ़ी हुई है। वह टीवी वाले कमरे की तरफ देखने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे अजीब लगा क्योंकि, वह पहली बार मुझे देख कर मुस्कुराए भी नहीं .....पास पहुंचा तो देखा उनका शरीर पूरी तरह अकडा हुआ है.... इच्छा तो हुई कि सावित्री को घसीटकर लाऊं और यह दृश्य दिखाउं ......पर मैं उनके पास जाकर बैठ गया..... उनसे माफी मांगी.... उनकी पलकों पर हाथ फेरा और उनकी आंखें बंद हो गई।" यही कारण था कि पिता बालक की मां से नफरत करता रहा और बालक को यही बात शूल की तरह चुुभता रहा और अपराध बोध के दंश देता रहा।वह दादा को यह नहीं बता पाया कि," इंदिरा गांधी की मृत्यु हो गई है इसलिए टीवी पर फिल्में नहीं आएंगी।" पिता की मृत्यु के बाद लाल के द्वारा स्पष्ट किया जाता है कि अब कोई भी नहीं है जो इस प्रश्नों के उत्तर जानता है। पर ,अब मैंने मान लिया है कि आपने मेरे सारे सवालों के उत्तर अपने इस अंतिम खत में लिख दिए हैं। इसे मैं पूरी जिंदगी अपने पास रखूँगा पर खोलूंगा नहीं। मैंने मान लिया है। क्योंकि, गणित के सवाल को हल करते समय मानना पड़ता है मान लेने से ही कुछ बातों का हल मिल जाता है। जो लेखक करता है।

                   Laffaireblog.wordpress.com पर Review में मानव कौल के शब्दों को इस प्रकार देख सकते हैं,"peele scooter wala aadmi,is the story of a middle  aged writer,who was hunted by certain simple yet pertinent questions about his childhood,That he spent most of his adult life seeking answers to. These questions formed the crux of the reason why the story he tired so hard to write,could not see an end,despite his,writing and trashing drafts ;for weeks  and months together. "पीले स्कूटर वाला आदमी जिसका रिव्यू मुंबई थियेटर गाईड. कॉम पर भी देखा जा सकता है) जहाँ एक लेखक के भीतर चल रहे सवालों को स्पष्ट किया गया है। क्योंकि "Quotes such as"chote swalon ke chhote jabab ho sakte hain par kaee sawal itne bade hote hain ,unke jabab nhi hote who aapke sath rehne lagte hain"(small question may have small answers but many questions are so big that they have no answers ; the questions begin to stay with you)are regularly voiced  by the characters.

 मानव कौल ने अपने इस नाटक के संबंध में अपने ब्लॉग में स्पष्ट किया है। वह कहते हैं," एक प्याला चाय मुझे जिस तरह का अकेलापन देता है उसे मैं पसंद नहीं करता..... एक प्याला चाय का अकेलापन असल में अकेलेपन का महोत्सव मनाने जैसे है....।दूसरे प्याले का पात्र अपनी मौजूदगी खुद तय करता है....आप किसी का चयन नहीं करते... आप बहते हैं उनके साथ जो आपके साथ हम -प्याला होने आए हैं।यही पीले स्कूटर वाले आदमी का सुर है और दो चाय के प्यालों के संवाद हैं।"एक लेखक जब दो प्यालो के साथ बैठता है तो चाय की चुस्कीयों के साथ अंतर्मन में चल रहे संवाद- प्रतिसंवाद को प्रत्यक्ष पाता है।

         इस नाटक में कई पड़ाव हैं।जहां यह रेखांकित होता है कि, जीवन जब अभावों से ग्रस्त होता है तो मनुष्य सिमटकर जीता है। पर, जैसे ही साधन उसे संपन्न बनाने लगते हैं उसके पर थोड़े-थोड़े खुलने शुरू हो जाते हैं।यही पर धीरे-धीरे खुलते खुलते उन्मुक्त आकाश की चाह कर बैठते हैं। सावित्री, लाल ,पितांबर, पिता बूढ़ा आदमी  सभी बारी- बारी से उसी उन्मुक्त आकाश की चाह और फिर आत्मग्लानि से ग्रसित होते दिखते हैं। वहीं हम देख सकते हैं कि ,वृद्धावस्था एक ऐसी अवस्था है, एक ऐसा ठहराव है, जब व्यक्ति ठहरा हुआ होकर भी विचरण करने की प्रबल इच्छा रखता है। अपने अतीत और वर्तमान में उन सभी स्थितियों से पार पाना चाहता है, जिसमें वह स्वयं से जूझ रहा होता है या प्रश्नों के भवर में डूबता जा रहा होता है। नाटक की अंतिम पंक्तियों में पिता का यह कहना," सो जाओ ....सभी अपने अपने तरीके से रात के साथ सोते हैं।हर आदमी का रात के अंधेरे के साथ अपना संबंध होता है। यह संबंध अगर अच्छा है तो आपको नींद आ जाती है और अगर संबंध खराब है तो आपके जीवन के छोटे-छोटे अंधेरे रात के अंधेरे में घुस आते हैं जो आपको सोने नहीं देते और आप दूसरों को...।" जीवन में बहुत सारी बातें और घटनाएं ऐसी घटती हैं,जिन्हें हम नहीं चाहते हैं कि वह घटे। पर, उस घटना की खास बात यह होती है कि वह घटना अतीत के पन्नों से मिटाई नहीं जा सकती। उसे हमें यह मानकर ही चलना पड़ता है कि यह घटनाएं कभी नहीं मिट सकती। हां, एक परत पड़  सकती है उज्जवल भविष्य की। जिससे यह घटनाएं स्पष्ट ना दिखती रहे। मानव कौल इस नाटक को कुछ वाक्यों में स्पष्ट करते हैं,"पीले स्कूटर वाला आदमी एक लेखक की इसी जद्दोजहद की कहानी है .....वह कितना ईमानदार है? वह जो लिखता लिखना चाहता है और असल में उसे इस वक्त जो लिखना चाहिए के बीच का तनाव है।" और यह तनाव हम पूरे नाटक में जगह-जगह देख सकते हैं। नाटक अपने कथ्य और शिल्प में बेजोड़ है रंगमंच के गुणों से भरपूर यह नाटक दर्शकों और पाठकों को कुछ देर कुछ घंटे तक अपनी जद में ले लेता है ।इस नाटक की विशेषता है।Hindi Natak Review 

                                    Dr. Sangita 

                                    Lucknow,

.                             Uttarprdesh- India

 

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