मीरा ने अपनी सारी सही करते हुए अतुल की ओर देखा। उसके देखते ही अतुल नजरें चुराते हुए ...फिर अचानक से उसपर झपटते हुए कहा,अब अपना रोना - धोना लेकर मत बैठ जाना, मैं तुम्हारी तरह फ्री नहीं बैठा हूँ।तेज कदमों से वह बाहर निकल गया। अकेली मीरा आईने में खुद को इस हाल में देखकर फिर रोने लगी.....रोते हुए खुद को शीशे में देखना क्या होता है यह वही समझ सकता है जो किसी के लिए रोया हो....उसकी आँखों के आँसू आँखों को खाली कर चुके थे पर उसकी बातें जो आईने को बता रही थी मीरा क्यों रोती हो और कब तक .....औरत एक नदी के जैसे होती है उसकी अपनी कोई जमीन नही होती जिधर भी थोड़ी ढलान मिली उधर ही बढ़ने लगती है। वो चाहे उसका रिश्ता हो या दिल की हसरत उसकी निर्मलता से किसी को कुछ भी लेना देना नही होता लोग उसे बस उपभोग की ही वस्तु समझते रहते हैं।नारी कभी समझ ही नही पाती कि पुरुष तो बस उसका उपभोग करना जानता है। जिस नारी ने एक से अधिक लोगों से सम्पर्क बनाया लोग उसे चरित्र हीन समझ कर उससे खिलवाड करने लगते हैं।वहीं अपनी बीबी को ही सबसे चरित्रवान समझते हैं, चाहे वह उनके पीठ पीछे कुछ भी करती हो। पुरुष को अपना बच्चा ही प्यारा होता है इसलिए वह अपनी बीबी को भी चाहता है भले ही बेमन से ही, पर दूसरी औरत दूसरी ही रह जाती है, जिसे केवल सब्जबाग ही दिखाया जाता है हकीकत नहीं। हकीकत तो जब तक सामने आती है तब तक उस स्त्री का तो सबकुछ लुट चुका होता है।औरत के मन को जो समझ सके ऐसे मर्द तो बिरले ही होते हैं...
नदी का अंतिम पड़ाव निश्चित है, कि उसे किसी न किसी सागर की गोद में ही पूर्ण विराम और विश्राम मिलेगा। पर.... औरत तो यह निश्चय करके, भी निश्चिंत नहीं हो पाती। फिर भी उसका आत्म बल की जितनी सराहना की जाए वो कम है। वो पुरुष को लाखों गलतियों के बाद भी अपनाना जानती है। सब कुछ जानते हुए भी अंजान रहना उसे आता है। एक खोह सी होती है उसके भीतर जिसमे सब कुछ समाता जाता है। ईश्वर ने मानव प्रजाति में नारी को बनाकर ने निश्चिंतता पा ली कि वह सबकुछ सम्भाल लेगी। पर वह भी चाहती है कि कोई उसे सम्भाले। मीरा को उसकी सोच से बाहर खीचते हुए समीर ने उसके कंधे पर हाथ रखा ही था... कि उसे देखते ही मीरा की आँखों के झरने फिर बह चले....
Dr. Sangita
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