शाम,बेहद खूबसूरत साँवली परी सी सूरज को आँचल में छुपाये,आँखों में उतरती चली जाती हैl जैसे उतरना ही उसे आता हो ... और सूरज भी दिन भर तपते -तपते थक कर चूर,उसकी गोद में सिर छुपाये सुकून से सोना चाहता होl दोनों का ही अद्भुत मिलन हैl साँवली सी काया और भी गहराती जाती है, धीरे- धीरे नीरवता सन्नाटे की भाषा अपनाने लगती हैl शाम तो शाम है वह तो ढलने के लिए ही है.... चाहे दिन का उजाला हो या जीवन की दोपहर दोनों ही शाम को महसूस नहीं कर सकते , इसके लिए शाम तक आना होता हैl पर,शाम की ओर बढ़ते कदम शाम को कभी नहीं देखते उन्हें तो शाम के बाद की गहरी रात दिखती हैl शाम को देखने वाला व्यक्ति दोपहर बाद और भी ऊर्जा से स्वयं को दोपहर तक वापस खींच कर ले जाना चाहता हैl पर, वह उम्र को घड़ी की सुईयों से नहीं खींच पाताl यही समय का चक्र है जो घूमता रहता है, पर कभी भी किसी को एहसास भी नहीं होने देता कि वह घूम रहा है... और ...हम आईने में खुद की चिकनी, बेदाग सूरत को देखते रहते हैं आईना नहीं बदलता ......बस...हमारी सूरत देखते ही देखते कब दागदार , खुर्दूरी, बेनूर सी लगने लगती है, हमें पता ही नहीं चलता.... यहाँ से वापसी का रास्ता बंद हो जाता है, यहाँ से हमारी वास्तविक पूँजी हमारे काम आती है, जो आजीवन बनी रह सकती है, यदि हमने वो पूँजी गवां दी तो हमारा जीवन और हमारी साँसें किसी पर भी बोझ बनने लगती हैं, और असहनीय बोझ को उतारा जाता है, या फेंक दिया जाता है... 😐🙂Dr. sangita
शाम,बेहद खूबसूरत साँवली परी सी सूरज को आँचल में छुपाये,आँखों में उतरती चली जाती हैl जैसे उतरना ही उसे आता हो ... और सूरज भी दिन भर तपते -तपते थक कर चूर,उसकी गोद में सिर छुपाये सुकून से सोना चाहता होl दोनों का ही अद्भुत मिलन हैl साँवली सी काया और भी गहराती जाती है, धीरे- धीरे नीरवता सन्नाटे की भाषा अपनाने लगती हैl शाम तो शाम है वह तो ढलने के लिए ही है.... चाहे दिन का उजाला हो या जीवन की दोपहर दोनों ही शाम को महसूस नहीं कर सकते , इसके लिए शाम तक आना होता हैl पर,शाम की ओर बढ़ते कदम शाम को कभी नहीं देखते उन्हें तो शाम के बाद की गहरी रात दिखती हैl शाम को देखने वाला व्यक्ति दोपहर बाद और भी ऊर्जा से स्वयं को दोपहर तक वापस खींच कर ले जाना चाहता हैl पर, वह उम्र को घड़ी की सुईयों से नहीं खींच पाताl यही समय का चक्र है जो घूमता रहता है, पर कभी भी किसी को एहसास भी नहीं होने देता कि वह घूम रहा है... और ...हम आईने में खुद की चिकनी, बेदाग सूरत को देखते रहते हैं आईना नहीं बदलता ......बस...हमारी सूरत देखते ही देखते कब दागदार , खुर्दूरी, बेनूर सी लगने लगती है, हमें पता ही नहीं चलता.... यहाँ से वापसी का रास्ता बंद हो जाता है, यहाँ से हमारी वास्तविक पूँजी हमारे काम आती है, जो आजीवन बनी रह सकती है, यदि हमने वो पूँजी गवां दी तो हमारा जीवन और हमारी साँसें किसी पर भी बोझ बनने लगती हैं, और असहनीय बोझ को उतारा जाता है, या फेंक दिया जाता है... 😐🙂Dr. sangita
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