कितना कुछ है इन वादियों में.....इन पहाड़ों की बात ही कुछ अलग हैl जब भी इन्हें देखा...ये उन्नतशीलता का बोध कराते हैं lकमरे के आगे की बालकनी और बालकनी में खूबसूरती से लटकती फूलों वाली बेलें...यह कुर्सियां और यह करीने से लगी सजावटी वस्तुएं .....क्या स्वर्ग यही है?...शायद यही तो स्वर्ग है...और ,इस स्वर्ग की सुषमा को निहारती मेरी यह दो आंखें.....तीसरी,चौथी,कोई और आंख नहीं है यहाँ....कुछ लोग बहुत दूर से मुझे देख रहे हैंl उन्हें आश्चर्य होता है ,मेरे हाथों में डायरी और पेन देखकर ....मैं कुछ लिख रही हूंl हवा के झोंके मेरे बालों से खेल रहे हैंlमैं उन्हें खेलने देती हूंlयह खेलते हैं तो मुझे अच्छा लगता हैl मैं उन्हें देखती हूं तो,उनमें खो जाती हूंl हालांकि,उन्हें देखा नहीं जा सकताl पर,यह नन्ही - नन्ही पत्तियां जब हिलती हैं तब,लगता है कि यह हमारे पास ही तो है....जैसे मेरे बालों में,मेरे कानों के आसपास ....मुझे अपने होने का एहसास करा रहे हैंl कि ,ये मुझे अकेला होने नहीं दे रहे हैं l इतनी खूबसूरती कि आंखों में जगह ही नहीं बच रही कि,वह और भी समा सकेl यह छोटी-छोटी आंखें,इन आंखों में कितना कुछ बसा है ....कितना कुछ रमा है,कितना कुछ बुझा -बुझा सा भी हैl मैं देखती हूं सीढीदार खेतों को....इतनी दूर से .....खेतों में काम करते किसान...काली चीटियों से इधर-उधर हिल- डूल रहे हैंl यह छोटे-छोटे से बने घर ....माचिस के रंग-बिरंगे डिब्बे जैसे खूबसूरत से लग रहे हैं l हरियाली के बीच में बहुत दूर -दूर ..छोटे-छोटे फूलों से खिले घर...क्या वजह होती है,इतनी दूर बीहड़ पहाड़ों पर बसने की...?....जहां ,जिस जगह , जिधर जगह मिले व्यवस्था से उसने वहां घर बना लियाl झोपड़ियां डाल ली होटल और मंदिर बना लिए .....दुर्गम पहाड़ियों के बीच यह मंदिर और लोगों की श्रद्धा दोनों का अटूट संबंध हैl सारे तर्कों और वितर्कों से परे कुछ कहना हो तो क्या कहें....इन तर्कों के बीच यह हवाएं मुझे और भी कुछ कह रही हैं कि,यही रह जाओ न,देखो कितना कुछ है यहां जो तुम्हें चाहिए,जो तुम्हें देखना पसंद हैlजिसे तुम वहां तक देख पाती हो जहां तक बहुत कम लोगों की नजर जा पाती हैk यह खिले और खिलने को आतुर फूलों की लचकती डालियां ....यह लताएँ मुझे रोक रही हैंl यह मुझे अपनी कोमलता ,मधुरता और मुस्कान में सजा लेना चाहते हैंl उलझ जाती है यह हवाएँ यह हवाएँ मेरे बालों से .....जिनका छूना भी मदहोश करने के लिए काफी हैl पर ,रुक जाना ही तो जीवन नहीं हैlजीवन तो चरैवेति -चरैवेति पर ही आधारित हैl शरीर तो ठहर जाए पर मन और जीवन कहीं भी नहीं ठहरते l उन्हें तो चलना होता हैl...अंत की ओर ,उस शाश्वत सत्य की ओर .....मैं भी चल रही हूँl
नैनीताल ,भीमताल,मुक्तेश्वर नाथ और नीम करोली...इन स्थानों पर जाते हुए यहां के सौंदर्य से मोहित और मुग्ध मन से किसी यहाँ के बाशिंदे की आंखों में देखने पर वह खूबसूरती नजर नहीं आतीl क्योंकि,उनके लिए यह सब कुछ जीवन का हिस्सा हैl नैसर्गिक आकर्षण , खूबसूरत विलासितापूर्ण होटल ,गलियारे,रेस्टोरेंट और सजावटी दुकानें...बिजनेस का माध्यम हैlनैसर्गिक सुषमा का मूल्य उन्हें वसूलना आता हैlउन्हें महसूस करने का उनके पास न समय है और ना ही जरूरत l अप्रतिम नैसर्गिक,स्वर्गीय सौंदर्य भी रोज-रोज देखकर फीका पड़ने लगता हैlयह मनुष्य का स्वभाव हैlअपार सौंदर्य से मनुष्य पार पा ही लेता हैl पर ,यह खूबसूरती लुभावने अंदाज में मुझे कुछ और फिर कह रही है...रुक जाओ न...कुछ दिन ही सही ....मैं जानती हूं,हमेशा के लिए मैं किसी को रोक नहीं सकतीl पर,कुछ समय के लिए अपनी नैसर्गिकी से तुम्हें बांध रही हूं बंध जाओ न....बहुत कुछ है कहने को जो देखा जो महसूस किया lपर,अभी इतना ही...😊🏔⛰️🌱🌿☘️🍁🌹🌷💐🌺🌲🏔🏔😊
Dr. Sangita
Nainital Yatra ke kuch pal
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